एप्पल न्यूज, शिमला
हिमाचल प्रदेश में वर्ष भर अनेक प्रकार के उत्सव, मेले एवं त्यौहार मनाए जाते हैं। इन सभी उत्सवों को मनाने के पीछे कोई ना कोई धारणा जरूर होती है।
ऐसा ही एक उत्सव है- सायर। इसे पहाड़ी में सायर या सैर भी कहा जाता है। यह उत्सव हिंदू कैलेंडर के अनुसार आश्विन मास की सक्रांति को मनाया जाता है जो कि अंग्रेजी कैलेंडर के सितंबर माह के मध्य में आता है।
हमारे पूर्वजों ने खुद को हमेशा प्रकृति के नजदीक रखा और इसके संरक्षण के लिए सदा प्रयासरत रहे। इसके लिए वे अनेक प्रकार के आयोजन किया करते थे।
वे प्रकृति द्वारा प्रदत्त अनेक संसाधनों के माध्यम से जीवन की परिकल्पना करते थे। प्रकृति के द्वारा प्रदत्त जीवन के लिए वे प्रकृति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए अनेक उत्सवों का आयोजन करते थे।
सायर भी ऐसा ही पर्व है। माना जाता है कि सावन और भादों में बरसात का मौसम होता है। इस मौसम में अनेक प्रकार की आपदाओं एवं जल जनित रोगों का फैलना स्वभाविक होता है।
भादों में बरसात के मौसम का अंत होता है तो आश्विन मास की संक्रांति को सायर पर्व मनाया जाता है। इसमें विभिन्न प्रकार की आपदाओं एवं बीमारियों से बचे रहने पर प्रकृति के प्रति कृतज्ञता या धन्यवाद प्रकट किया जाता है।
सायर का यह पर्व कृषि क्षेत्र से भी जुड़ा हुआ है। यह समय खरीफ की फसलों के पकने का भी होता है। इसके बाद इन फसलों की कटाई भी शुरू होनी होती है। इसलिए फसलों की अच्छी पैदावार और खुशहाली के लिए भी ईश्वर को धन्यवाद स्वरूप इस पर्व का आयोजन होता है।
हिमाचल प्रदेश के विभिन्न इलाकों में इस पर्व को मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, किंतु उद्देश्य सभी का एक ही होता है।
अधिकतर जगहों पर खरीफ की फसलों जैसे धान, मक्की, खीरा, गलगल, खट्टे, अमरुद, तिल आदि सामग्री को इकट्ठा करके एक टोकरी में रखा जाता है और इनकी पूजा की जाती है। कुछ इलाकों में अखरोट के आदान-प्रदान का भी प्रचलन है।
पुराने समय में हमारे समाज की विभिन्न जातियां परस्पर एक दूसरे की पूरक थी और समाज एक समरस समाज होता था। सायर उत्सव पर भी समाज का नाई सैरी माता की पालकी या टोकरी तैयार करके रात को सभी के घरों में जाता था और लोग सैरी माता का वंदन करते थे तथा चढ़ावे के रूप में कुछ पैसे और अनाज भेंट करते थे।
रक्षाबंधन के दिन पहनी हुई राखियों को कुछ लोग गुग्गा नवमी के दिन उतार देते हैं और बचे हुए लोगों द्वारा सायर के दिन इन राखियों को उतार कर सैरी माता को भेंट कर दिया जाता है।
सायर उत्सव पर पशुओं को भी बरसात के बाद घरों से बाहर निकाला जाता था। बरसात के बाद चारों ओर उगी हुई हरी घास भी पशुओं को चराई जाती थी और जो कि पशुओं के स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होती थी।
बरसात के दो महीनों में घरों में कैद रहने के बाद समाज के मनोरंजन के लिए कई जगहों पर पशुओं की विशेषकर भैंसों तथा बैलों की लड़ाईयों का आयोजन भी किया जाता था। वर्तमान में सरकार द्वारा इस पर रोक लगा दी गई है।
यह पर्व सर्दी के मौसम के आने का प्रतीक भी माना जाता है। इस उत्सव पर अनेक जिलों में पारंपरिक व्यंजनों को भी बनाया जाता है।
इस दिन भटूरू, हलवा स्वाळू, पतरोडू, भल्ले, कचोरी, मीठी सेवइयां, खीर, गुलगुले आदि पकवान बनाए जाते हैं।
इन व्यंजनों को एक थाली में सजाकर आस पड़ोस में तथा अपने रिश्तेदारों में भी बांटा जाता है। घर के बड़ों को दूर्वा या दूव के साथ अखरोट भेंट किए जाते हैं और उनके चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लिया जाता है।
हमारी संस्कृति में महिलाओं को मां लक्ष्मी का रूप माना जाता है जो कि धनधान्य की देवी है। भादो के महीने को पहाड़ों में काला महीना कहा जाता है। इस महीने में समाज की नवविवाहिताएं अपने मायके गई होती हैं।
वे भी इस दिन वापस आती हैं और सायर उत्सव मनाते हुए परिवार की खुशहाली और समृद्धि की कामना करती हैं। भादो के महीने में ऐसा माना जाता है कि भादो के महीने में देवताओं तथा प्रेत-आत्माओं में युद्ध होता है।
इस युद्ध के बाद देवता अपने-अपने स्थानों पर वापस आते हैं और सभी देव स्थानों के कपाट खोल कर वहां भी पूजा का आयोजन किया जाता है।
बदलते समय के साथ साथ त्योहारों को मनाने के तरीके भी बदल गए हैं। सब जगह व्यापारीकरण के चलते पैसे का बोलबाला हो गया है। आजकल की युवा पीढ़ी कंप्यूटर और मोबाइल फ़ोन की आदी हो गयी है।
आजकल गला काट स्पर्धा के समय में किसी के पास भी समय नहीं है और जिनके पास समय है भी उन्हें रीति रिवाजों का ज्ञान नहीं है।
अब नई पीढ़ी ने अपने पुश्तैनी काम त्याग दिए हैं और जो कोई थोड़े बहुत लोग यह काम कर भी रहे हैं उनका इन त्योहारों को मनाने के तरीके का ज्ञान समाप्त हो चुका है।
बदलते समय के साथ त्योहारों को मनाने की प्रथाएं विलुप्त हो रही हैं। आज के समय में नाई द्वारा सैरी माता के वंदन के लिए पालकी या टोकरी को घर घर ले जाना शर्म वाला काम महसूस होता है।
अब ना तो कोई नई शायरी माता की पालकी बनाता है, ना बच्चे सिक्कों और अखरोट से खेलते हैं और ना ही लोगों ने पशु पाल रखे हैं। अब अधिकतर जगहों पर त्यौहारों को केवल सांकेतिक तौर पर मनाने का प्रचलन चल पड़ा है।
पहाड़ों की एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है जिसका मजबूत वैज्ञानिक आधार भी है। हम सभी को इस विरासत को बचाने और अगली पीढ़ी तक इसे पहुंचाने की जिम्मेदारी है।
इसके लिए समाज की युवा पीढ़ी अपना योगदान दे सकती है जिससे हमें अपने त्योहारों के पारंपरिक स्वरुप को बनाए रखने में सहायता मिलेगी।
डॉ. अवनीश कुमार
सह-प्रोफ़ैसर