शर्मा जी, एप्पल न्यूज़, शिमला
ब्रिटिश शासन में भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी में बनी देश की सबसे पुरानी विधानसभा से पिता-पुत्र की जोड़ी बिछड़ गई। ये जोड़ी थी वीरभद्र सिंह और विक्रमादित्य सिंह की।
पहली बार हिमाचल प्रदेश विधानसभा में पूर्व मुख्यमंत्री स्व वीरभद्र सिंह और उनके पुत्र विक्रमादित्य सिंह अलग अलग जिलों के विधानसभा क्षेत्रों से जीतकर विधानसभा पहुंचे थे और एक साथ कार्यवाही में भाग लिया।
यूँ बीते वर्ष हुए विधानसभा सत्रों में वीरभद्र सिंह स्वास्थ्य और कोरोना महामारी के चलते कम ही आये लेकिन जब भी आए तो अपने पुत्र का हाथ थाम कर आगे बढ़ते हुए आए।
लेकिन 8 जुलाई की अलसुबह वीरभद्र सिंह अपने पुत्र का हाथ छोड़कर सदा के लिए इस लोक को छोड़ परलोक सिधार गए। अब हिमाचल विधानसभा में ये जोड़ी कभी साथ नजर नहीं आएगी।
वीरभद्र सिंह ने रोहड़ू विधानसभा सीट के आरक्षित होने पर साल 2012 में खुद के लिए शिमला ग्रामीण सीट को चुना और चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचने के साथ ही मुख्यमंत्री भी बन गए।
हर पिता की ख्वाहिश होती है कि उनके सामने उनका वारिस स्थापित हो जाये। वीरभद्र सिंह ने मुख्यमंत्री बनते ही शिमला ग्रामीण का जिम्मा अपने युवा बेटे विक्रमादित्य सिंह को सौंप दिया। अपने सिपहसालारों को निर्देश दिए कि इस क्षेत्र के समुचित विकास के लिए विक्रमादित्य सिंह का हरसम्भव सहयोग किया जाए।
2012 से 2017 तक के 5 वर्षों में विकास की दृष्टि से पिछड़े इस ग्रामीण क्षेत्र में विकास की ब्यार बहने लगी
समूचे क्षेत्र के लिए हर कैबिनेट में करोड़ों की योजनाओं को मजूरी दी जाती और इसका श्रेय विक्रमादित्य सिंह को मिलने लगा। नतीजा ये हुआ कि विक्रमादित्य की प्रसिद्धि बढ़ने लगी। वीरभद्र सिंह ने सोचे अनुरूप 2017 में युवा विक्रमादित्य के लिए अपनी सुरक्षित सीट छोड़कर खुद के लिए जिला सोलन की अर्की सीट पर जमीन तलाश की।
जदोजहद और लंबे संघर्ष के बाद वो मौका भी आया जब चुनाव नतीजे आये और दोनों ही सीटों से वीरभद्र सिंह और विक्रमादित्य सिंह के रूप में पिता-पुत्र की जोड़ी पहली बार विधानसभा की दहलीज पर पहुंची। हर ओर इस जोड़ी की चर्चा होने लगी। हो भी क्यों न पिता-पुत्र के साथ ही वीरभद्र सिंह इस हाउस में सबसे वरिष्ठ और अनुभवी सदस्य भी थे।
यूँ इन चुनावों में कांग्रेस की जीत लगभग तय मानी जा रही थी लेकिन समीकरण बदले तो कांग्रेस के कई दिग्गजों को अप्रत्याशित हार का मुंह देखना पड़ा जबकि भाजपा के नामित मुख्यमंत्री अपना ही चुनाव हार गए।
वीरभद्र सिंह को विपक्ष में बैठना पड़ा। आग्रह के बाद भी उन्होंने नेता विपक्ष का पद ग्रहण नहीं किया और मुकेश अग्निहोत्री को ये दायित्व सौंपा। ये सब अपने बेटे के राह में बिखरे कांटों को चुनने के समान था।
विधानसभा के भीतर और बाहर राजनीति की बारीकियों और अपने अनुभव से अपने बेटे को गुर सिखाए जा रहे थे। सदन के भीतर कई ऐसे मौके मिले जब पक्ष और विपक्ष दोनों की जुगलबंदी की तारीफ किए बिना न रह सका।
ऐसा ही मौका बीते वर्ष सत्र के दौरान देखने को मिला जब चर्चा के बीच विक्रमादित्य सिंह पिता के पास आये उनका हाल जाना, पानी पिलाया और उनसे बातचीत की। इसी बीच पिता का बेटे के प्रति प्यार उमड़ आया और वीरभद्र सिंह ने भरे सदन में ही बेटे का हाथ थामा, सहलाया और उसे चूमा, तो सदन के भीतर सभी की निगाहें इस अटूट प्रेम को बरबस देखती ही रह गई।
सदन में लगे डिजिटल कैमरे में रिकार्ड ये वीडियो वायरल हुआ और पूरे प्रदेश में फैल गया तो लोग कहते कि बेटे में पिता का अक्स दिखाई देता है। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था, कि वीरभद्र सिंह मझधार में ही छोड़ कर अब बेटे को अकेला छोड़ गए। अब सदन में न जाने कब ऐसा अवसर मिले कि कोई पिता अपने बेटे को समकक्ष बैठाकर राजनीति के गुर सिखाता नजर आए। वाकई ये सब इतिहास के झरोखे से मधुर यादों के समान है।