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नेशनल अवार्डी केदार ठाकुर के निर्देशित “पॉपकॉर्न” एकल नाटक ने सेंट थॉमस में लूटी वाहवाही

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प्रेस विज्ञप्ति

सोमवार को शिमला के सेंट थॉमस स्कूल के Centenary Year-100 वर्ष पूरे होने के अवसर पर भाषा, कला एवं संस्कृति विभाग हिमाबल प्रदेश के सौजन्य से संकल्प रंगमंडल शिमला द्वारा Theatre in Education (Edutainment) मुहिम का शुभारंभ किया जिसके अंतर्गत सेंट थॉमस स्कूल के विद्यार्थियों के लिए नाटक “पॉपकॉर्न” का मंचन किया गया।

इस अवसर पर विद्यालय की प्रधानाचार्या विधु प्रिया चक्रवर्ती बतौर अध्यक्ष शामिल हुई जबकि भूतपूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा से सेवा निवृत्त अधिकारी, वरिष्ठ पत्रकार, नाट्य समीक्षक तथा गेवटी ड्रामेटिक सोसाइटी की विशेषज्ञ समिति के सदस्य श्रीनिवास जोशी तथा हिमाचल प्रदेश विश्व विद्यालय के भूतपूर्व प्रोफ़ेसर एवं गेयटी ड्रामेटिक सोसाइटी की विशेषज्ञ समिति के सदस्य डॉ० कमल मनोहर शर्मा तथा वरिष्ठ रंगकर्मी प्रवीण चान्दला बतौर विशिष्ट अतिथि शामिल हुए जबकि इस कार्यक्रम में संयोजक की भूमिका विद्यालय की ही अध्यापिका सुश्री पूर्णिमा ने अहम भूमिका निभाई।

मूलतः Edutainment अंतर्राष्ट्रीय अवधारणा है जिसमें बच्चों के नाटक तथा बच्चों के लिए नाटक इस उद्देश्य से किए जाते हैं ताकि ना सिरफ उनका मनोरंजन हो बल्कि वे बिना बोझ लिए शिक्षित भी होंगे। नई शिक्षा नीति में इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रंगमंच को प्रमुखता दी गई है।

“पॉपकॉर्न” नाटक एक पॉपकॉर्न बेचने वाले एक पढ़े लिखे युवा बेरोजगार की कहानी है जो रेलवे स्टेशन पर पॉपकॉर्न बेचता है। वो अपने इस संवाद में अपनी व्यथा स्पष्ट करता है कि हालाँकि पॉपकॉर्न बेचूँगा, ये सोचकर पढ़ाई नहीं की थी”…

ये युवक रोज़ रेलवे स्टेशन पर पॉपकॉर्न बेचने आता है और अपने रोजमर्रा के अनुभव विद्यार्थीयों के सामने रखता है। वो अपने सपनों को सांझा करता है और इसी बहाने हमारे समाज में व्याप्त बुराईयों पर करारे प्रहार करता है।

नाटक का नायक रूपक एक संवेदनशील इंसान है जो एक तरफ़ देश, समाज, संस्कृति, आचार व्यवहार, नैतिकता और इंसानियत की पैरवी करता है तो दूसरी ओर तथाकथित आधुनिकता, निजीकरण, भ्रष्टाचार, किसानों की दुर्दशा, ई एम आई और बाज़ारवाद पर करारे कटाक्ष करता है।

नाटक के अंत में वो इस संवाद के माध्यम से एक व्यापक प्रश्न हमारे समाज से पूछता है कि कोई अच्छा आदमी बनने के लिए चिंतन क्यों नहीं करता…? अच्छा आदमी बनाने की मशीन कोई क्यों नहीं बनाता….???

गौरतलब है कि नाटक “पॉपकॉर्न” एक एकल नाटक है जिसके नाटककार जबलपुर मध्य प्रदेश के विख्यात नाटककार व निर्देशक आशीष पाठक हैं जबकि इस नाटक में जिला शिमला के शिलारू जनपद के अनिल शर्मा ने लाजवाब एकल अभिनय किया।

इस नाटक का निर्देशन हिमाचल प्रदेश के लिए राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त उत्तर भारत के प्रख्यात निर्देशक केदार ठाकुर ने किया है। नाटक का संगीत रोहित कैवल और राकेश शर्मा ने दिया जबकि मंच व्यवस्थापक की भूमिका रूपेश भीमटा के निभाई।

इस नाटक के सहायक निर्देशक राकेश शर्मा तथा अमित रोहाली थे। इसके अतिरिक्त संकल्प रंगमंडल की पूरी टीम शामिल हुई और नाटक के बाद विद्यार्थियों के साथ संवाद किया।

रंगमंच अभिनेता का माध्यम है; किन्तु दुर्भाग्यवश रंगमंच में अभिनेता की अलग पहचान नहीं बन पायी। इस पहचान के बिना रंगमंच की पहचान भी संभव नहीं है। ‘एकल अभिनय’ पूरी तरह अभिनेता का रंगमंच है।

यह एक अभिनेता को उसके द्वारा अर्जित अनुभव, कार्यदक्षता और कल्पनाशीलता के प्रदर्शन का स्वतंत्र अवसर उपलब्ध करता है और उसे उसकी जादुई शक्ति के साथ रंगमंच पर प्रतिष्ठापित भी करता है। एकल नाटक व्यापक दर्शक समुदाय को सम्बोधित करता है।

ऊपरी तौर पर ‘एकल अभिनय’ भले ही सरल लगता हो; किन्तु वास्तव में, यह समूह-अभिनय’ से ज्यादा जटिल है और कल्पनाशीलता तथा नाट्य-कौशल में सिद्धहस्त अभिनेता की माँग करता है | समूह अभिनय में, जहाँ अनेक अभिनेताओं की क्रिया प्रतिक्रिया के संघर्ष

से नाट्य प्रभाव की सुष्टि होती है; वहीं एकल अभिनय में, अभिनेता के भीतर यह नाट्य-व्यापार घटित होता है, जो उसकी शारीरिक क्रिया द्वारा मंच पर साकार होता है।

एकल अभिनय, अभिनेता को विशेष पहचान देता है, उसके प्रति दर्शकों की आस्था को शक्ति प्रदान करता है। इसप्रकार यह रंगमंच के नायक ‘अभिनेता’ को पुनर्स्थापित करने का महत्वपूर्ण कार्य करता है।

भारतीय रंगमंच में, एकल अभिनय की परम्परा काफी वर्षों से है रंगमंच के लिए किसी नाट्य प्रयोग की प्रासंगिकता, उसके द्वारा संपूर्ण नाट्य प्रभाव की सृष्टि और नाट्‌यकला का आस्वाद करा पाने की उसकी क्षमता में अन्तर्निहित है।

इसलिए, एकल अभिनय एक सामान्य नाट्य मंचन जैसा ही है, जिसमें एक-अकेले अभिनेता के अतिरिक्त, किसी दूसरे अभिनेता की उपस्थित्ति की आवश्यकता नहीं होती और इसकी सफलता भी इसी में है कि दर्शक को किसी भी क्षण किसी अन्य अभिनेता के न होने का अहसास न हो।

एकल अभिनय को, रंगमंच के एक ‘फॉर्म’ अथवा शैली के रूप में दर्शकों की स्वीकृति भी मिल रही है और यह रंगमंच के हित में है।

गौरतलब है कि संकल्प रंगमंडल शिमला इसी नाटक के मंचन शिमला तथा हिमाचल प्रदेश के विद्यालयों तथा महाविद्यालयों के लिए इसी नाटक के मंचन करने की योजना बना रहा है।

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