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अनुपम है आउटर सिराज के धनाह का ‘ठिरशू’, विलुप्त स्वांग परम्परा का मेले में होता है बखूबी प्रदर्शन

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एप्पल न्यूज़, कुल्लू
हिमाचल का नाम सुनते ही हमारे मस्तिष्क पटल पर जो छवि उभर कर सबसे पहले आती है वह है पहाड़ बर्फ से लकदक चोटियां और घने जंगल। लेकिन वास्तव में हिमाचल की असल छवि कहीं ज्यादा व्यापक एवं खूबसूरत है।

हिमाचल की सुंदरता यहां के पहाड़ों पर बसे छोटे.छोटे गांवों एवं यहां की संस्कृति में बसती है। हिमाचल के गांव में अनेक प्रकार के पारंपरिक रीति.रिवाजों एवं धार्मिक अनुष्ठानों का प्रचलन देखने को मिलता है। आज भी यहां के लोगों द्वारा इन पौराणिक परंपराओं एवं रिवाजों को जीवित रखा गया है। जी हांए हिमाचल की बहुमूल्य संस्कृति आज भी यहां के गांवो में मनाए जाने वाले मेलों एवं उत्सवों में साफ देखी जा सकती है।

ऐसी ही परंपरा को जीवित रखा है जिला कुल्लू के आउटर सिराज के दूरदराज स्थित नित्थर फाटी के छोटे से गांव धनाह ने। यहां हर वर्ष 8 बैसाख के दिन श्ठिरशूश् नामक पारंपरिक मेले का आयोजन किया जाता है।

यह मेला 7 बैसाख की संध्या को स्थानीय देवता रखाऊ नाग जी की रथ यात्रा से शुरू होता है। ग्रामीणों द्वारा पूरे हर्षोल्लास के साथ पारंपरिक वाद्य यंत्रों की मधुर धुनों के बीच नाग देवता की रथयात्रा गांव के साथ लगते देवस्थान जिसे पहाड़ी भाषा में देव थाणी कहा जाता है तक निकाली जाती है।

वहां पहुंचकर नाग देवता अपने निश्चित स्थान पर बैठते हैं नाग देवता की पूजा अर्चना के साथ मां काली का आवाहन किया जाता है इसके पश्चात ग्रामीणों द्वारा सुंदर पहाड़ी नाटी के साथ नाग देवता के रथ को वापस मंदिर परिसर में लाया जाता है। अगले दिन यानी 8 बैसाख को नाग देवता अपने रथ पर सवार होकर गांव के बीचोंबीच स्थित प्रांगण में पूरे विधि विधान के साथ आते हैं।

गांव की महिलाओं द्वारा अपने इष्ट देवता का स्वागत फूल मालाओं धूप एवं अनाज भेंट करके किया जाता है। नाग देवता के आने की खुशी में पारंपरिक लोकगीत श्लाहणे एवं लामणश् आदि की धुनों से मानो पूरा क्षेत्र अलौकिक एवं विस्मयकारी हो उठता है। इसके पश्चात इस ठिरशू मेले की सबसे आकर्षित परंपरा यानी श्स्वांगश् का प्रदर्शन किया जाता है।

महाभारत एवं मुगल काल की घटनाओं एवं सामाजिक जीवन से प्रेरित है स्वांग
ग्रामीणों द्वारा विभिन्न प्रकार के स्वांग जैसे मेंढक नृत्य, मुगल मट्ठाण, ढोल बरैटी, ब्रह्मचारी, साहूकार आदि के माध्यम से महाभारत तथा मुगल काल में घटित घटनाओं को जीवंत किया जाता है। 5०० से भी अधिक वर्ष पूर्व से इस मेले में स्वांगो के माध्यम से लोगों का मनोरंजन किया जा रहा है। प्रत्येक स्वांग अपने आप में अतीत के रहस्यों एवं संदेश को समाए हुए लोगों का मनोरंजन तो करते ही हैं साथ ही सैकड़ों वर्ष पूर्व के मानव जीवन एवं सामाजिक परिवेश की झलक भी दिखाते हैं। स्वांगो द्वारा पहने गए परिधान एवं मुखोटे आकर्षण का मुख्य केंद्र रहते हैं।
 स्वांग के साथ.2 तलवारबाजी भी है मेले का मुख्य आकर्षण
मेले में स्वांगो के साथ.2 तलवारबाजी की कला का भी प्रदर्शन किया जाता है।

यहां के स्थानीय ग्रामीण चांद कुमार शर्मा एवं देशराज शर्मा का कहना है कि उन्हें यह तलवारबाजी की कला अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है। प्राचीन समय में गांव के लोगों  द्वारा इस तलवारबाजी कला का प्रयोग बाहरी अक्रांताओं से गांव की रक्षा एवं देवता के खजाने की सुरक्षा के लिए किया जाता था। इसी परंपरा को स्थानीय ग्रामीणों ने आज भी जिंदा रखा है ।धनाह गांव के लोग तलवारबाजी कला में आज भी पारंगत है।

             सभी स्वांग कलाओं के प्रदर्शन के उपरांत मैदान के बीच में लगाए गए देवदार के पेड़ ;जिसे स्थानीय भाषा में श्पड़ेईश् कहा जाता हैद्ध के चारों ओर वाद्य यंत्रों की उत्तेजित करने वाली धुनों के बीच एक खेल का आयोजन किया जाता है। जिसमें पेड़ की चोटी पर बंधे देव वस्त्र ;स्थानीय भाषा में शाड़ीद्ध को निकालने के लिए गांव के नौजवानों एवं अन्य लोगों में प्रतिस्पर्धा होती है। जो भी व्यक्ति उस देव वस्त्र को पेड़ में चढ़कर निकालने में सफल रहता है उसे नाटी में सबसे आगे नाचने का मौका मिलता है जो एक सम्मान की बात समझी जाती है।

मनमोहक कुलवी नाटी एवं मधुर धुनों के बीच नाग देवता के रथ को उनकी कोठी में वापिस पहुंचाया जाता है। इसके पश्चात सभी ग्रामीण सुबह तक अपने इष्ट देवता रखाऊ नाग एवं मां दुर्गा धनेश्वरी की लोकगीत एवं पारंपरिक भजनों से स्तुति करते हैं तथा रात्रि स्वांग एवं नाटी के प्रदर्शन के बीच सुबह की पहली किरण निकलते ही इस ऐतिहासिक एवं पुराणिक मेले का विधि विधान के साथ समापन होता है। इस प्रकार यह मेला निश्चित रूप से हिमाचल की बहुमूल्य संस्कृति का परिचायक हैए जिसे धनाह वासियों ने आज भी पूरी तन्मयता के साथ संजोकर रखा है।

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