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कोविड-19 में सामुदायिक सहयोग और सहभागिता

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एप्पल न्यूज़, शिमला

भारतीय संस्कृति में सामुदायिक सहयोग व सहभागिता का एक अहम योगदान है। चाहे हम प्राचीन समय में देखें या वर्तमान समय की बात करें। जिस तरह से 1991 में निजीकरण उदारीकरण भूमंडलीकरण का दौर आया उसके बाद इंसान बहुत ज्यादा उपभोक्तावादी बन गया है। एकल परिवार प्रणाली, गांव से शहरों की ओर पलायन व वहां पर तैयार होते सीमेंट के जंगलों में रहने का आदी बन गया है।

जबसे कोरोना का कहर एक महामारी के रूप में पूरी दुनिया में फैला है उसने इंसान को यह सोचने के लिए मजबूर तो कर ही दिया है कि प्राकृतिक कभी भी अपना अस्तित्व खोने नहीं देती है। इंसान सर्वोपरि बन चुका है। जल, जंगल, जमीन को जैसे चाहे अपने व्यक्तिगत हितों को पूरा करने के लिए उनका दोहन कर रहा है। इस महामारी में एक और बात सामने आ रही है वो है सामाजिक बहिष्कार, जो कि हमारी संस्कृति को भी तोड़ रही है।

भाईचारा शब्द बिखर रहा है। गांव में एक दूसरे के साथ बात करने के लिए बुजुर्ग लोग कम होते जा रहे हैं। और नौजवान साथी अधिकतर अपनी आधुनिकता की जिंदगी जीने के लिए शहरों को पलायन कर रहे हैं। समाज का इस तरह बिखरना व टूटना सच में ही हमारे लिए व आने वाली पीढ़ियों के लिए एक भयानक खतरा है।

शिक्षा पद्धति भी उपभोक्तावादी बन चुकी है। विद्यार्थी भी सिर्फ बाजार की जरूरतमंद के हिसाब से तैयार किए जा रहे हैं। जिनमें नैतिकता का विशेष अभाव पाया जा रहा है। जिंदगी बहुत छोटी है दोस्तों यह अक्सर बोलते सबको सुना है। परंतु इस महामारी में यह साक्षात दिखा दिया।

हम उनको भी खो रहे हैं जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। हमें अपनी संस्कृति व भाईचारे को फिर से मजबूत करने की जरूरत है। और इसी सामुदायिक सहयोग व सहभागिता से अगर हम रहते हैं तो स्वाभाविक रूप से इस महामारी से भी हम लड़कर जीत जाएंगे।

लेखक

राजेश शर्मा

राज्य अध्यक्ष, ओंकार संस्था (NGO) हिमाचल प्रदेश

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