एप्पल न्यूज़, शिमला
शिकागो के अमर शहीदों ने मालिकों की गुलामी से मुक्ति,अपने आदर्शों को पूर्ण करने व पूंजीपतियों की लूट को रोकने के लिए 11 नवम्बर 1887 को खुशी-खुशी फांसी का फंदा चूम लिया। ठीक वैसे ही जैसे बाद में 23 मार्च 1931 को भारतवर्ष में शहीद भगत सिंह,सुखदेव व राजगुरु ने इंसान के हाथों इंसान के शोषण को बन्द करने के लिए फांसी के फंदे को चूमा। फांसी के फंदे की ओर जाते हुए शिकागो के ऐतिहासिक मजदूर आंदोलन के प्रमुख नेता ऑगस्टस स्पाइस ने शासक वर्ग को ललकारा:
एक दिन आएगा जब हमारी खामोशी उन आवाजों से भी ज़्यादा ताकतवर होगी जिन्हें आज तुम दबा रहे हो।
ऑगस्टस स्पाइस के शब्दों का महत्व आज बिल्कुल साफ नजर आता है जब मजदूर वर्ग के नेतृत्व में अनेकों क्रांतियों का गवाह बनी दुनिया के फ्रांस जैसे मुल्क में येलो वेस्ट व अमरीका जैसे देश में रैड शर्ट मूवमेंट में लाखों लोग सड़कों पर उतरकर हुक्मरानों की लूट को चुनौती देते हैं। इन शब्दों का महत्व तब और भी बढ़ जाता है जब भारतवर्ष में करोड़ों मजदूर हड़तालों के माध्यम से सड़कों पर उतरकर शासक वर्ग के खिलाफ जंग का खुला ऐलान करते हैं। इसलिए 1 मई दुनिया के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण दिन है। इस दिन से कई महत्वपूर्ण घटनाक्रम जुड़े हुए हैं। आइये जानते हैं क्या है इस दिन का इतिहास और मजदूर वर्ग की जिंदगी में क्यों इतना मायने रखता है यह दिन।
वर्ष 1945
हिटलर नहीं रहे। दूसरी बार थोड़ा ज़ोर से न्यूज़ एंकर ने कहा कि तानाशाह फासीवादी एडोल्फ हिटलर नहीं रहे। ये शब्द 1 मई 1945 को बीबीसी से देर रात सुनाई दिए। जी हां वही एडोल्फ हिटलर जो मजदूर वर्ग की कब्र खोदने निकले थे लेकिन मजदूर वर्ग से टकराकर अपनी ही कब्र खुदवा बैठे। वही हिटलर जो पूरी दुनिया में फासीवाद के सिंबल बन चुके थे। वही हिटलर जिन्होंने फासीवाद को स्थापित करने के लिए जर्मनी के साठ लाख यहूदियों का बड़ी निर्ममता से कत्लेआम कर दिया। वही हिटलर जिन्होंने अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को पूर्ण करने के लिए दुनिया पर दूसरा विश्व युद्ध थोप दिया। परिणाम स्वरूप लगभग साढ़े आठ करोड़ निर्दोष लोगों को पूंजीपतियों की लालसा व भूख को तृप्त करने के लिए अपनी कुर्बानी देनी पड़ी। वही हिटलर जिन्होंने अपनी हेकड़ी जमाने के लिए जर्मनी की चौहत्तर लाख जनता की बलि दे दी। इस कड़ी में यहूदियों का नरसंहार अलग है। उसी क्रूर तानाशाह की मौत की खबर की घोषणा इसी दिन जर्मन रेडियो व बीबीसी से हुई। जर्मन रेडियो की जानकारी पर बीबीसी ने हिटलर की मौत पर इस दिन यह घोषणा करके दुनिया के मजदूर वर्ग में यह विश्वास पुख्ता कर दिया कि लुटेरों का अंत अवश्यम्भावी है। मेहनतकश अवाम से टकराने वालों को मिट्टी में मिलना ही पड़ेगा। यह अलग बात है कि दुनिया ने हिटलर की मौत पर प्रमाणिक मोहर 2 मई को ही लगाई। जर्मन रेडियो ने हिटलर की मौत की घोषणा के साथ ही कहा कि एडोल्फ हिटलर लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। हालांकि यह सच नहीं था क्योंकि हिटलर युद्ध क्षेत्र में लड़ते हुए शहीद नहीं हुए थे बल्कि उन्होंने 30 अप्रैल 1945 को अपने बंकर में मजदूर वर्ग के आगे घुटने टेकते हुए कायरों की तरह आत्महत्या कर ली थी। इसके बाद जर्मनी ने 7 मई को हथियार डाल दिये। तत्पश्चात सितंबर में दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति की औपचारिक घोषणा हो गयी। हिटलर की मौत साम्राज्यवाद,पूंजीवाद व फासीवाद पर समाजवाद की जीत थी। उसी पूंजीवाद पर जिसने ठीक साठ साल पहले शिकागो के मजदूर आंदोलन को कुचलकर अपने शाश्वत होने की घोषणा की थी। आखिरकार साठ साल बाद मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी सोवियत संघ ने साम्राज्यवाद,पूंजीवाद व फासीवाद की जड़ें खोद ही डालीं।
वर्ष 1886
शायद उस वक्त किसी ने कल्पना भी न की होगी कि सन 1886 के जिस मजदूर आंदोलन को दबाया जा रहा है उस से ठीक साठ साल बाद यही मजदूर वर्ग दूसरे विश्व युद्ध में साम्राज्यवाद,पूंजीवाद व फासीवाद के कफ़न में आखिरी कील ठोंकने व उनकी कब्र खोदने जैसा ही काम करेगा हालांकि पूंजीपति व मजदूर वर्ग में यह लड़ाई अब भी जारी है परन्तु यह मजदूर वर्ग के आंदोलन में एक बेहद महत्वपूर्ण पड़ाव था। 1 मई 1886 के दिन अमेरिका के शिकागो शहर में आठ घण्टे के कार्य दिवस को लेकर मजदूर वर्ग ने एक निर्णायक हुंकार भरी थी। पूरे देश में मजदूरों द्वारा एक आम हड़ताल का आह्वान किया गया था। इस हड़ताल को लेकर मजदूर वर्ग में भारी उत्साह था क्योंकि अब शोषण की सीमा चरम पर पहुंच चुकी थी व इसके खिलाफ लड़ने के सिवा कोई चारा न था। इस हुंकार से औद्योगिक शहर शिकागो भी अछूता नहीं रहा बल्कि यूँ कहें कि इतिहास के पन्नों में इस देशव्यापी मजदूर आंदोलन के केंद्र बिंदु के रूप में ही शिकागो का नाम दर्ज हो गया। शोषण,ज़ुल्म व अत्याचार के खिलाफ शिकागो व पूरे अमरीका में मजदूर सड़कों पर उतर आए थे। मजदूर आंदोलन की यह ज्वाला अचानक नहीं धधकी थी। इसकी पटकथा 1870 के दशक से ही लिखी जानी शुरू हो चुकी थी। इस दशक में रेल व अन्य मजदूरों ने काफी महत्वपूर्ण आंदोलन किये थे। वर्ष 1882 के बाद से मजदूर आंदोलन ने अमरीका में काफी गति पकड़ ली थी। यह इसलिए था क्योंकि सन 1882 से लेकर सन 1886 तक अमरीका गहरी आर्थिक मंदी की चपेट में था व इस मंदी में सबसे ज़्यादा पिसने वाला मजदूर वर्ग ही था। 1 मई 1886 के आंदोलन भी इसी आंदोलन की परिणिती था।
यह आंदोलन पूरी तरह शांतिपूर्वक आंदोलन था परन्तु पूंजीपति अपनी लूट को बरकरार रखने के लिए व इस हेतु मजदूर आंदोलनों को दबाने के लिए हमेशा तरह-तरह के पैंतरे अपनाते रहे हैं व षड़यंत्र रचते रहे हैं। शिकागो का मजदूर आंदोलन इसमें कोई अपवाद न था। यह इस बात से भी साफ ज़ाहिर हो जाता है कि अमर शहीदों को सन 1887 में फांसी देने के छः साल बाद सन 1893 में शिकागो के गवर्नर ने सरेआम घोषणा की कि शिकागो के अमर शहीदों से अन्याय हुआ व यह मिसकैरेज ऑफ जस्टिस था।
मजदूर वर्ग के संघर्षों व बलिदानों के इतिहास में शिकागो प्रकरण सबके लिए प्रेरणा का एक स्त्रोत है। सन 1871 में फ्रांस के पेरिस कम्यून व उस से पहले सन 1864 में कार्ल मार्क्स व फ़्रेडरिक एंगल्ज़ के नेतृत्व में इंटरनेशनल वर्किंग मैन एसोसिएशन के गठन ने दुनिया के मजदूर वर्ग के लिए आशा की एक नई किरण जगाई थी। पेरिस कम्यून के संघर्ष में असंख्य मजदूरों की कुर्बानी हुई। पेरिस कम्यून के मजदूर संघर्ष ने दुनियाभर में आंदोलनों की एक नई लहर का रास्ता खोल दिया। 1 मई 1886 को आठ घण्टे के कार्य दिवस को लेकर पूरे अमरीका में आंदोलन व आम हड़ताल का आह्वान किया गया था। इसी आंदोलन की ज्वाला औद्योगिक नगरी शिकागो शहर में भी धधक उठी थी। इस दिन पूरे अमरीका के तेरह हज़ार उद्योगों में सात लाख व शिकागो में चालीस हजार मजदूरों द्वारा जबरदस्त प्रदर्शन किया गया। इस सिलसिले में 3 मई को हुए प्रदर्शन पर भारी पुलिसिया दमन किया गया लेकिन आंदोलन शांतिपूर्वक तरीके से लगातार आगे बढ़ता रहा।
इसी कड़ी में 4 मई को हड़ताल के समर्थन में एक बार पुनः शिकागो की हे मार्केट स्क्वायर में आंदोलन का आह्वान किया गया जिस पर शासक वर्ग व पुलिस ने क्रूरतम दमन किया। प्रदर्शन को सम्बोधित करने के बाद मजदूर नेता अल्बर्ट पार्सनज़ अपने घर को निकल चुके थे। देर रात को प्रदर्शन को मजदूर नेता ऑगस्टस स्पाइस सम्बोधित कर रहे थे जब पुलिस ने शांतिपूर्वक प्रदर्शन को तितर-बितर करने के लिए मजदूरों पर लाठीचार्ज कर दिया व गोलियां बरसा दीं। इसी दौरान किसी अनजान व्यक्ति ने भीड़ के बीच में बम फेंक दिया जिसमें सात पुलिस कर्मचारी व चार मजदूर मारे गए। पुलिस द्वारा सैंकड़ों मजदूरों को गिरफ्तार करके उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी गईं। मजदूरों में अपने शोषण व दमन के खिलाफ गुस्सा लगातार बढ़ रहा था। उन्होंने 5 मई को एक बार फिर प्रदर्शन किया जिस पर एक बार पुनः भारी पुलिस दमन किया गया। इसमें सात मजदूर मारे गए व सैंकड़ों मजदूर गम्भीर रूप से घायल हो गए।
शासक वर्ग द्वारा आठ प्रमुख मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। मजदूर नेताओं के खिलाफ कोई भी ठोस प्रमाण न होने के बावजूद भी उनके खिलाफ झूठा मुकद्दमा चलाया गया व उन्हें उस ज़ुर्म के लिए दंडित किया गया जो उन्होंने कभी किया ही नहीं था। अल्बर्ट पार्सनज़ की बेगुनाही का सबूत तो शिकागो के महापौर ने स्वयं दिया था जो 4 मई की जनसभा में स्वयं मौजूद थे। इस बात को शिकागो के गवर्नर ने सन 1893 में स्वीकार किया कि शिकागो के शहीदों को दी गयी फांसी गैर कानूनी व गलत थी तथा वे निर्दोष थे।
ऑगस्टस स्पाइस,अल्बर्ट पार्सनज़,एडोल्फ फिशर,ज्योर्ज एंगल व लूइस किंग को न्यायालय द्वारा मौत की सज़ा सुनाई गई। लूइस किंग ने फांसी से एक दिन पहले सिगार में छिपी ब्लास्टिंग कैप से खुद को मौत के घाट उतार दिया व बाकी चार अन्य को 11 नवम्बर 1887 को फांसी की सज़ा दी दी गयी। ऑस्कर नीबे,सैमुएल फील्डन व माइकल स्कवेब को उम्र कैद की सज़ा दी गयी जिसे शिकागो के गवर्नर ने सन 1893 में माफ कर दिया। सन 1889 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने पहली बार शिकागो के शहीदों को याद करने के लिए 1 मई 1990 को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाने की घोषणा की। सन 1891 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने पुनः इसे दोहराया। बाद में सन 1904 में दुनिया की समाजवादी व जनवादी पार्टियों ने शिकागो के शहीदों को याद करने के लिए हर वर्ष इन कार्यक्रमों को करने की घोषणा की।
शिकागो आंदोलन के दूसरे महत्वपूर्ण मजदूर नेता अल्बर्ट पार्सनज़ ने शहादत से पहले मजदूर वर्ग से आह्वान किया:
जो मेरा कार्य व कर्तव्य था वह मैं आपके हाथों में सौंप कर जा रहा हूँ। मानव मुक्ति की इस लड़ाई में हो सकता है कि इस वक्त मैं व मेरे साथी अस्थाई तौर पर पराजित हो गए हों परन्तु संघर्षों में हमारे द्वारा थामा गया यह झंडा अब आपके हाथों में है। शांति,भाईचारे व प्रसन्नता के दुश्मनों के खिलाफ इस लड़ाई को तब तक जारी रखना जब तक कि यह गहरे लाल रंग का झंडा पूरी तरह विजयी नहीं हो जाता है। मैं केवल इतना कहना चाहता हूँ कि तुम डगमगाना,लड़खड़ाना व हिचकिचाना नहीं। मैं आपसे अपील करता हूँ कि पूंजीवाद की असमानताओं को समाज के सामने लाओ। कानून की दासता को बेनकाब करो। सरकार के अत्याचार,जुल्म,जबरदस्ती,शोषण,अत्याचार,क्रूरता व निरंकुर शासन के खिलाफ लड़ाई की घोषणा करो। वे विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लोग जो अपने वेतन दासों के श्रम पर जिंदा हैं व भव्य प्रदर्शन करते हैं,मौज मनाते हैं,आनंदोत्सव करते हैं व धूमधाम मनाते हैं उनकी घृणा,नफरत,लालच,निर्दयता,कठोर,क्रूरता व निष्ठुरता की भर्त्सना करो व उसे दोषी ठहराओ। अलविदा साथियो।
अल्बर्ट पार्सनज़ द्वारा मजदूर वर्ग से किये गए इस आह्वान को पूरा करने की जिम्मेवारी आज हम सब पर है। अन्याय,शोषण,जुल्म व अत्याचार के खिलाफ जो लकीर शिकागो के शहीदों ने खींची हमें उसे हर हाल में आगे बढ़ाना ही होगा। यही हमारी ओर से शिकागो के शहीदों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। आज नियमित रोजगार को पूरी तरह खत्म करके ठेका प्रथा,आउटसोर्स व फिक्स टर्म रोजगार के ज़रिए मजदूरों की लूट को आगे बढ़ाने का क्रम अपने चरम पर पहुंच रहा है। आज योजना कर्मियों का शोषण बेलगाम आगे बढ़ रहा है। पूरे सार्वजनिक क्षेत्र को तबाह करके पूंजीपतियों के मुनाफे को बढ़ाने के लिए उसे उनके हवाले किया जा रहा है। देश की श्रम शक्ति के सबसे बड़े 94 प्रतिशत हिस्से मनरेगा,निर्माण व अन्य मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा पर हमला लगातार बढ़ रहा है। अपने खून-पसीने से जिस आठ घण्टे के कार्य दिवस के लिए शिकागो के शहीदों ने सर्वस्व समर्पण कर दिया आज भारतवर्ष,गुजरात व हरियाणा की सरकारों द्वारा उस आठ घण्टे के कार्य दिवस को बढ़ाकर बारह घण्टे करने से मजदूर वर्ग पर एक बार पुनः शोषण का शिकंजा कसने लगा है। देश में अंग्रेजों के जमाने से लेकर आज तक इस सौ साल के सुनहरे ट्रेड यूनियन व मजदूर आंदोलन द्वारा अनेकों संघर्षों व बलिदानों से हासिल किये गए चवालीस श्रम कानूनों को शासक वर्ग व उसकी सबसे बड़ी पैरोकार वर्तमान सरकार द्वारा खत्म करके चार श्रम संहिताओं में बदलने का कार्य लगभग पूरा हो चुका है जिस से मजदूर का शोषण कई गुणा बढ़ना तय है। इन्ही श्रम कानूनों की रक्षा,ट्रेड डिसपयूट बिल व सेफ्टी बिल के खिलाफ ही तो शहीद भगत सिंह व बटटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय असेम्बली में बम फेंक कर घोषणा की थी
बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की आवश्यकता होती है।
भारत में आठ घण्टे के कार्यदिवस के अधिकार पर तब हमला हो रहा है जब दुनिया के बहुत सारे देशों में छः घण्टे के कार्यदिवस व मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा को पुख्ता करने के लिए बड़े-बड़े संघर्ष चल रहे हैं। पूंजीपति कोरोना काल के इस लॉक डाउन के संकट काल में लूट के क्रम को न केवल जारी रखना चाहते हैं बल्कि इसे ओर तेज करना चाहते हैं जिसकी मजदूर वर्ग उन्हें कतई इज़ाज़त नहीं देगा। पेरिस कम्यून व शिकागो के शहीदों का बलिदान बेकार नहीं जाएगा। यह संघर्ष तब तक जारी है जब तक कि दुनिया की मेहनतकश अवाम का शोषण नहीं रुकता है। तक तक जब तक कि उन्हें उनका वाजिब हक नहीं मिलता है। तब तक जब तक कि इंसान के हाथों इंसान का शोषण बन्द नहीं होता है। तब तक जब तक दुनिया का निर्माण करने वालों को उसमें उनका हिस्सा नहीं मिलता है। तब तक जब तक उन्हें पूर्ण न्याय नहीं मिलता है व शोषणविहीन समाजवादी व्यवस्था का निर्माण नहीं होता है। मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के शब्दों में
हम मेहनतकश जब दुनिया से अपना हिस्सा मांगेंगे,एक खेत नहीं एक देश नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे।
लेखक
कॉमरेड विजेंद्र मेहरा, शिमला