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10 वें गुरू गोविन्द सिंह- हिमाचल से रहा गहरा नाता, जानें वीर गुरु यौद्धा की जीवनी और वीर गाथाएं

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एप्पल न्यूज़, शिमला

गुरू गोविन्द सिंह के बारे में आवश्यक जानकारी:
सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोविंद सिंह जी का प्रकाश पर्व
जन्म नाम : गोबिंद राय सोधी
जन्म : 1666, पटना साहिब, भारत
माता पिता : माता गुजरी, गुरु तेग बहादुर
अन्य नाम : दसवें सिख गुरु, सर्बांस दानी, मर्द अगम्र, दशमेश पिताह, बाज’अन वाले
पूर्ववर्ती गुरु : गुरु तेग बहादुर
उत्तराधिकारी गुरु : गुरु ग्रन्थ साहिब
पत्नियों के नाम: माता जीतो, माता सुंदरी, माता साहिब देवन
बच्चों के नाम : अजित सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फतेह सिंह
मृत्यु : 7 अक्टूबर, 1708 हजुर साहिब नांदेड, भारत
महान कार्य : खालसा पंथ के संस्थापक और जाप साहिब, चंडी दी वार, तव प्रसाद सवैये, जफर्नामः, बचित्तर नाटक, अकल उस्तात, सिख चैपाई के लेखक रहे।

संक्षिप्त जीवन परिचयः-
गुरु गोविंद सिंह जी सिखों के दसवें गुरु हैं। इतिहास में गुरु गोविंदसिंह एक विलक्षण क्रांतिकारी संत व्यक्तित्व है। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार गुरु गोविंद सिंह का जन्म पौष माह की शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को 1723 विक्रम संवत को हुआ था। जूलियन कैलेंडर के अनुसार गुरु गोविंद सिंह का जन्म 22 दिसंबर 1666 में गोबिंद राय के रूप में हुआ था, लेकिन चंद्र कैलेंडर के अनुसार उनकी जयंती जनवरी के महीने में आती है इस वर्ष ये 20 जनवरी को आ रही है। गुरु गोविंद जी सिख धर्म के 10वें और अंतिम गुरु थे और उनकी शिक्षाएँ पूरे सिख समुदाय के लिए प्रेरणा रही हैं उनके उपदेशों और मूल्यों को पीढ़ियों से पीढ़ियों तक ले जाया गया है। गुरु गोविंद सिंह एक महान कर्मप्रणेता, अद्वितीय धर्मरक्षक, ओजस्वी वीर रस के कवि के साथ ही संघर्षशील वीर योद्धा भी थे। उनमें भक्ति और शक्ति, ज्ञान और वैराग्य, मानव समाज का उत्थान और धर्म और राष्ट्र के नैतिक मूल्यों की रक्षा हेतु त्याग एवं बलिदान की मानसिकता से ओत-प्रोत अटूट निष्ठा तथा दृढ़ संकल्प की अद्भुत प्रधानता थी तभी स्वामी विवेकानंद ने गुरुजी के त्याग एवं बलिदान का विश्लेषण करने के पश्चात कहा है कि ऐसे ही व्यक्तित्व के आदर्श सदैव हमारे सामने रहना चाहिए। गुरु नानक देव की ज्योति इनमें प्रकाशित हुई, इसलिए इन्हें दसवीं ज्योति भी कहा जाता है। बिहार राज्य की राजधानी पटना में गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म हुआ था। सिख धर्म के नौवें गुरु तेग बहादुर साहब की इकलौती संतान के रूप में जन्मे गोविंद सिंह की माता का नाम गुजरी था। श्री गुरु तेग बहादुर सिंह ने गुरु गद्दी पर बैठने के पश्चात आनंदपुर में एक नए नगर का निर्माण किया और उसके बाद वे भारत की यात्रा पर निकल पड़े। जिस तरह गुरु नानक देव ने सारे देश का भ्रमण किया था, उसी तरह गुरु तेग बहादुर को भी आसाम जाना पड़ा। इस दौरान उन्होंने जगह-जगह सिख संगत स्थापित कर दी। गुरु तेग बहादुर जी जब अमृतसर से आठ सौ किलोमीटर दूर गंगा नदी के तट पर बसे शहर पटना पहुंचे तो सिख संगत ने अपना अथाह प्यार प्रकट करते हुए उनसे विनती की कि वे लंबे समय तक पटना में रहें। ऐसे समय में नवम् गुरु अपने परिवार को वहीं छोड़कर बंगाल होते हुए आसाम की ओर चले गए। पटना में वे अपनी माता नानकी, पत्नी गुजरी तथा कृपालचंद अपने साले साहब को छोड़ गए थे। पटना की संगत ने गुरु परिवार को रहने के लिए एक सुंदर भवन का निर्माण करवाया, जहां गुरु गोविंद सिंह का जन्म हुआ। तब गुरु तेग बहादुर को आसाम सूचना भेजकर पुत्र प्राप्ति की बधाई दी गई। पंजाब में जब गुरु तेग बहादुर के घर सुंदर और स्वस्थ बालक के जन्म की सूचना पहुंची तो सिख संगत ने उनके अगवानी की बहुत खुशी मनाई। उस समय करनाल के पास ही सिआणा गांव में एक मुसलमान संत फकीर भीखण शाह रहता था। उसने ईश्वर की इतनी भक्ति और निष्काम तपस्या की थी कि वह स्वयं परमात्मा का रूप लगने लगा। पटना में जब गुरु गोविंद सिंह का जन्म हुआ उस समय भीखण शाह अपने गांव में समाधि में लिप्त बैठे थे। उसी अवस्था में उन्हें प्रकाश की एक नई किरण दिखाई दी जिसमें उसने एक नवजात जन्मे बालक का प्रतिबिंब भी देखा। भीखण शाह को यह समझते देर नहीं लगी कि दुनिया में कोई ईश्वर के प्रिय पीर का अवतरण हुआ है। यह और कोई नहीं गुरु गोविंद सिंह जी ही ईश्वर के अवतार थे।
आइए आपको गुरु गोबिंद सिंह जी के बारे में 10 अज्ञात तथ्यों से परिचित कराते हैं-

महत्वपूर्ण तथ्यः-

  1. मैं दुनिया में हर जगह अधिकार को बरकरार रखने के लिए, पाप और बुराई को नष्ट करने के लिए कर्तव्य के साथ आरोप लगाया गया … मैंने जन्म लिया एकमात्र कारण यह था कि धार्मिकता पनप सकती है, अच्छा हो सकता है, और अत्याचारी फटे जा सकते हैं उनकी जड़ों से बाहर।
  2. वह अकेला एक आदमी है जो अपनी बात रखता है ऐसा नहीं है कि उसके दिल में एक चीज है, और दूसरी जीभ पर।
  3. जो मुझे भगवान कहते हैं, वे नरक के गहरे गड्ढे में गिरेंगे। मुझे उसके दासों में से एक के रूप में और इसके बारे में कुछ भी संदेह नहीं है। मैं परमात्मा का सेवक हूंय और जीवन के अद्भुत नाटक को निहारने आए हैं।
  4. सबसे बड़ी सुख-सुविधा और स्थायी शांति तब प्राप्त होती है, जब व्यक्ति अपने भीतर से स्वार्थ को मिटा देता है।
  5. अज्ञानी व्यक्ति पूरी तरह अंधा होता है वह गहना के मूल्य की सराहना नहीं करता है।
  6. यदि आप मजबूत हैं, तो कमजोरों पर अत्याचार न करें, और इस प्रकार अपने साम्राज्य पर कुल्हाड़ी न डालें।
  7. अपनी तलवार से दूसरे के खून को लापरवाही से न बहाओ, ऐसा न हो कि तलवार उच्च पर तुम्हारी गर्दन पर गिरे।
  8. अहंकार में, एक व्यक्ति को भय द्वारा मार दिया जाता है, वह अपना जीवन पूरी तरह से डर से परेशान होकर गुजरता है।
  9. धन्य है, धन्य है सच्चा गुरु, जिसने प्रभु के नाम का सर्वोच्च उपहार दिया है।
  10. सच्चे गुरु से मिल कर भूख मिटती है, भिखारी के वस्त्र पहनने से भूख नहीं मिटती।
  11. अहंभाव एक ऐसी भयानक बीमारी है, द्वंद्व के प्यार में, वे अपने कर्म करते हैं।
  12. वह जो सभी पुरुषों को समान मानता है वह धार्मिक है।

गुरू गोविंद सिंह जी का हिमाचल से रहा है गहरा नाताः-
नाहन आनन्दपुर से पूर्व दक्षिण की ओर लगभग 100 कोस की दूरी पर स्थिति है। यहां पर उन दिनों मेदिनी प्रकाश नामका राजा राज्य करता था। सिरमौर के पूर्वी सीमापर यमुना नदी बहती है। यमुना के उस पार गढ़वाल रियासत है, जहां पर फतेहशाह नामक राजा का राज्य था। दोनों राजाओं में सीमा विवाद था। फतेहशाह ने मेदिनी प्रकाश के कुछ भू-भाग पर अवैध कब्जा कर रखा था। जब इसकी पुत्री की सगाई कहलूर के राजा भीमचंद के पुत्र के साथ हुई तो इसको अपना सैन्य पक्ष भारी महसूस हुआ। यह मेदिनी प्रकाश को आंखे दिखाने लगा। मेदिनी प्रकाश को जब इस बात का पता चला तो वह गुरू गोविंद सिंह जी की सहायता लेने के लिए आनन्दपुर पहुंचा। वहां उसको पता चला कि गुरूदेव आपसी झगड़ों का विरोध करते हैं और मतभेदों को सम्मानजनक ढंग से सुलझाने में विश्वास रखते हैं। इस कारण उसने गुरूजी से प्रार्थना की कि वे उनके यहां नाहन नगर पधारें वहां रमणीक स्थल है वहां आपको हर प्रकार की सुविधा मिलेगी। अपनी माता के परामर्श के बाद उनके आदेश मानकर गोविंद सिंह जी नाहन आ गये। नाहन में गुरूजी का भव्य स्वागत किया गया मेदिनी प्रकाश ने उनको अनेक रमणीक स्थल दिखलाये। यह स्थान सामरिक महत्व का था इस कारण गुरूजी ने यहां अपना पांव टिका दिया। जिस कारण इस स्थान का नाम पांवटा पड़ गया। अक्तुबर 1684 में उन्होंने यहां पर नगर निर्माण का आदेश दिया। गुरूजी के साथ हजारों स्वयंसेवक सैनिक के रूप में थे। इस कारण मेदिनी प्रकाश की शक्ति में वृद्धि हो गयी। इस कारण नरेश फतेहशाह स्वयं को दबाव में महसूस करने लगा। गुरूजी पे्रम का संदेश प्रसारित करने वाले थे वे युद्ध नहीं चाहते थे। गुरूदेव ने एक प्रतिनिधिमंडल भेजकर नरेश फतेहशाह को बुला लिया। फतेहशाह को गुरूजी ने समझाया इसके बाद उनके वचनों से वह इतना प्रभावित हो गया कि उसने अपने पुराने शत्रु मेदिनी प्रकाश को गले लगाकर उससे विशेष संधि कर ली। संधि के अनुसार उसने उसकी भूमि पर किया अवैध कब्जा वापिस लौटा दिया।
पावंटा साहब से 15 कोस की दूरी पर स्थित सढौरा नामक कस्बा है। यहां पर सूफी संत, पीर बुद्धशाह जी की इस क्षेत्र में मान्यता थी। उनका असली नाम बदर-उद-दीन था। वह उदारवादी विचारों के कारण हिन्दु भी उनका सम्मान करते थे। उनकी मुलाकात जब गुरू गोविंद सिंह से हुई तो वे उनसे बहुत प्रभावित हुए। ये प्रायः गुरूदेव के दर्शनों के लिए पांवटा आते और अपनी आध्यात्मिक उलझनों का समाधान पाकर सन्तुष्टि प्राप्त करते। एक बार सढौरा में कुछ पठान सैनिक इनसे मिलने आये और गुरूजी से प्रार्थना की कि हमें औरंगजेब ने अपनी सेना से निकाल दिया है। इस कारण हम बेरोजगार हैं, हमें काम चाहिए। पीर बुद्धशाह जी को उन पठानों की दयनीय दशा पर दया आ गयी और उन्होंने सैनिकों को गुरू गोविंद सिंह के पास सिफारिश करते हुए भेजा कि आप इनको अपनी सेना में भर्ती कर लें। गुरूजी ने पीर का मान रखते हुए इन पांच सौ सैनिकों को अपनी सेना मंे भर्ती कर लिया और इनके अच्छे वेतनमान भी तय कर दिये। औरंगजेब ने इन सैनिकों को हुक्म-अदूली की धारा पर दण्डित किया था। इन सैनिकों के सरदारों के नाम क्रमशः उमर खान, काला खान, हयातखान, भीखनखान और जवाहर खान था।
पांवटा नगर में ही 7 जनवरी 1687 को गुरू गोविन्द जी के पहले पुत्र अजीत सिंह का जन्म हुआ। इस अवसर पर पावंटा में कई प्रकार के हर्षोल्लास के कार्यक्रम आयोजित किये गये।

राजा फतेहशाह की बेटी के विवाह का निमन्त्रण
गढ़वाल श्रीनगर के राजा फतेहशाह ने गुरूदेव को अपनी पुत्री के विवाह पर आमन्त्रित किया। गुरूदेव को भीमचंद के मन में संदेह का आभास था जिस कारण उन्होंने वहां स्वयं न जाकर दीवान नंदचंद के हाथ अनेक बहुमूल्य उपहार भेज दिये। राजा फतेहशाह ने सिक्खों की शूरवीर सैनिक टुकड़ी को सम्मान से नगर से बाहर एक अच्छे स्थान पर ठहराया। गुरूदेव के उपहारों को देखकर भीमचंद को ईष्र्या हो गयी वह गुरू को अपना शत्रु समझने लगा। वह न तो गुरूदेव के भेजे हुए उपहारों को ठीक समझता रहा था और न ही वह चाहता था कि फतेहशाह गुरू से कोई मैत्री रखे। फतेहशाह से उसने स्पष्ट कह दिया कि गोविंद सिंह उसका परम शत्रु है। वह अपने बेटे की शादी शत्रु के मित्र के घर पर नहीं करेगा। इस पर फतेहशाह घबरा गये और गुरू के भेजे उपहारों को चाहकर भी स्वीकार नहीं कर पाये। नंदचंद को इस बात का पता चला तो उसने सामान एकत्र कर वापिस हो गये। भीमचंद ने सेना के तम्बोल लूटने का दुस्साहस किया किन्तु दीवान नंदचंद ने उनको ऐसे करारे हाथ दिखलाए कि अपनी जान बचाकर भागे। उधर फतेहशाह की बेटी का विवाह होने के पश्चात सारे पर्वतीय राजाओं ने जिनमें चबां, सुकेत, मंडी, हंडूर किश्तवाड़ इत्यादि प्रमुख थे उनकी सभा बुलवायी। इस सभा में यह प्रस्ताव पारित किया गया और गुरूदेव को लिखकर भेजा गया वे उनकी अधीनता स्वीकार कर लें। उन्होंने कहा कि हमने अब तक आपको कुछ कहना ठीक नहीं समझा क्योंकि आप कुछ कहना ठीक नहीं समझा क्यांेकि गुरू नानक देव जी की गद्दी पर विराजमान हो, परन्तु आपने सभी परम्परायें बदल दी है। हमसे आपका राजसी आचरण और ज्यादा सहना कठिन हो गया है। यदि आप प्रसन्न रहना चाहते हैं तो अपने पिछले कृत्यों की क्षमा मांगकर आज्ञाकारी प्रजा की भांति रहें। यदि आप स्थान को छोड़ने के लिए तैयार न हों तो हम आपसे स्थान छीन लंेगे। इस पत्र का उतर देते हुए गुरूजी ने कहा कि हम किसी की हथियाई जमीन पर नहीं रहते पिता श्री तेगबहादुर जी ने इस स्थान को मूल्य देकर खरीदा है। हम किसी की प्रजा नहीं युद्ध की धमकियां बेकार है। यदि तुमको युद्ध का चाव है तो हम भी उसके लिए तैयार हैं। गुरू गोविंद सिंह जी ने युद्ध की तैयारियां आरम्भ कर दी और आक्रमण का मुंहतोड़ उतर देने के लिए तैयार हो गये। रणनीति की दृष्टि से भंगाणी नामक स्थान सामरिक महत्व का जानकर युद्व के लिए उपयुक्त मोर्चे बनाने में लग गये। यही वह स्थान है जहां पर प्राचीनकाल में नाहन और देहरादून का सड़क से संपर्क स्थापित होता है। पर्वतीय नरेशांे का समूह भंगाणी के मैदान में आ पहुंचा। इनमें भाग लेने वाले राजा थे भीमचंद, कृपालचंद कटोच, केसरी चंद जैसवाल, सुखदयाल जसरेत, हरीचंद नालागढ़, पृथ्वीचंद ढढवाल और भूपाल चंद मुलेर। 15 अप्रैल 1687 को दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध प्रारम्भ हुआ। गुरूजी की ओर से सैनिक टुकड़ियों की अगुवाई उनकी बुआ वीरोजी के पांचों सुपुत्र भाई संगोशाह, जीतमल, मोहरीचंद, गुलाबराय और गंगाराम कर रहे थे। राजा मेदिनी प्रकाश ने अपने चुनिंदा सिपाही गुरूदेव की सेना में भेज दिये। गुरूदेव के पास 2500 से अधिक योद्धाओं की संख्या पहुंच गयी। इस युद्ध में काशी का एक बढ़ई गुरू के दर्शनों के लिए आया तो अपने साथ लकड़ी की तोप लाया। इसकी विशेषता थी कि बाहरी खोल लकड़ी का तथा भीतरी हिस्सा एक विशेष धातु द्वारा तैयार किया गया था जा बार-बार प्रयोग करने पर भी गर्म नहीं होता था। इस तोप ने शत्रुओं को बहुत परेशान किया। इस युद्ध में पठान जोकि अपने सवारों सहित वेतन लेते थे और यद्ध के करतब दिखाते थे वे युद्ध की घोषणा के बाद छट्टी मांगने लगे। गुरूजी ने इनको बहुत समझाया और इनको पांच गुना वेतन देने की भी बात की लेकिन उन गद्दारों ने एक न मानी। ये वहां से अपने घर को जाने की बात बोलकर शत्रुपक्षी राजाओं से मिल गये एक काले खां ही इनको गद्दारी से रोकता रहा लेकिन इन्होंने उसकी एक न सुनी। युद्ध में गुरूदेव और हरीचंद का आमना-सामना हुआ। हरिचंद ने एक बाण से गुरूजी के घोड़े को घायल कर दिया। दूसरा तीर उनके कान को छूकर निकल गया, हरिचंद को अपनी तींरदाजी पर पहली बार क्रोध आया। तीसरा बाण गुरूजी को लगा जिससे वह कुछ घायल हो गये। तीन बाणों को चुपचाप झेलकर उन्होंने अपने उदार ह्रदय का परिचय दिया। इसके बाद गुरूजी ने भी बाण वर्षा प्रारम्भ की जिसमें हरिचंद मारा गया। हरीचंद की मृत्यु के बाद उसके साथी और सभी खान भाग निकले। कोटलेहर का राजा भी मारा गया और गुरूजी की फतेह हो गयी। इसके बाद पावंटा में फिर दीवान सजा पहले आसा की वार का कीर्तन हुआ, फिर गुरू की वाणी के पाठ की समाप्ति हुई और प्रसाद बांटा गया।

नादौन का युद्ध
सभी पहाड़ी राजा मुगल बादशाह औरंगजेब को प्रतिवर्ष कर देते थे। परन्तु बीच में तीन-चार साल हो गये पर पहाड़ी राजाओं ने बादशाह को कर नहीं दिया। परिणामस्वरूप औरंगजेब ने इसके लिए वहां पर तैनात सूबेदार को दोषी माना उसने शाही सैनिकों के साथ दो सेनापतियों को भेज दिया। वहां तैनात सूबेदार इस स्थिति से घबरा गया और उसने मीयांखां जम्मू की ओर कर उगाहने भेजा और कांगड़ा की ओर पहाड़ी राजाओं से कर उगाहने सूबेदार ने अपने भतीजे अलिफखां को भेजा। अलिफखां सीधा कांगड़ा पहुंचा और वहां के राजा कृपाल चंद से कर मांगा। कर देने में असमर्थ राजा ने बकाया राशि प्रदान करके अलिफखां से क्षमा मांगी। इसके साथ अपनी पुरानी दुश्मनी के चलते उसने उसको भीमचंद के खिलाफ भड़का दिया। भीमचंद के विरूद्ध लड़ने के लिए अलिफखां के साथ युद्ध भूमि में चलने के लिए राजी कर लिया। अलिफखां, कृपालचंद और दयाल चंद की संयुक्त सेनाओं कहलूर की सीमा पर नदी तट के पास उंची जगह पर नादौन में अपने मोर्चे बना लिये। युद्ध की तैयारी के बाद अलिफखान ने भीमचंद के पास संदेश भेजा कि तुमने कई सालों से कर की राशि नहीं चुकाई अतः एकदम राशि चुकता करो अन्यथा युद्ध के लिए तैयार रहो। भीमचंद को यह भी पता चल गया कि पड़ोसी राजा कृपालचंद और दयालचंद भी अलिफखान की सहायता के लिए साथ आये हैं। वह स्थिति से आतंकित हो गया। उसके पास कर की देय राशि नहीं थी अतः कोई विकल्प न देखकर उसने युद्ध का ही निश्चय किया। सहायता के लिए उसने अपने संदेशवाहक मित्र राजाओं को बुलाने के लिए भेजे। इसी समय मंत्री ने गुरू गोविंद सिंह जी से मुगलों के विरूद्ध सहायता के लिए भीमचंद को प्रेरित किया। उसको यह बात अपने स्वाभिमान के प्रतिकूल लगी लेकिन फिर भी उसने संदेशवाहक को गुरूजी के पास भेजा। गुरूजी ने युद्ध में उसकी सहायता का वचन दिया। फिर उसने विचार किया कि अगर गुरूदेव के पहले ही अगर वह मित्र राजाओं की सहायता से युद्ध जीत जाये तो इससे गुरू के मन में उसकी धाक जम जायेगी। अलिफ-कृपाल-दयाल की संयुक्त सेना ने लकड़ी की बाढ़ के उस पार से गोलियों और तीरों की इतनी बौछार की कि भीमचंद की सेना के असंख्य सैनिकों काम आ गये। गुरू गोविंद सिंघ अपने शूरवीरों के साथ जब युद्ध भूमि पर पहुंचे तो उन्होंने भीमचंद की दुर्गति होते देखी। उन्होंने यह महसूस कर लिया कि भीमसिंह अपनी मूर्खता और अभिमान के कारण पिट रहा है। इसके बाद गुरूदेव की शूरवीर सैनिकों ने पराक्रम दिखाया और संयुक्त सेनाओं को बुरी तरह से पराजित किया। धीरे-धीरे रात में ही सेनायें भाग खड़ी हुई। प्रातःकाल जब गुरूदेव जी की सेनाओं ने ‘सतश्रीअकाल’ का जयकारा बुलंद किया और आक्रमण की तैयारी की तो वहां शत्रु की अनुपस्थिति का पता चला। राजा भीमचंद ने अपनी विजय की घोषणा कर दी। भीतर से वह डरा हुआ भी था कि अलिफखां अधिक सैनिकों के साथ आयेगा तो उसके राज्य की नींवे हिलाकर रख देगा। अतः उसने गुरूदेव जी से परामर्श के बगैर ही कृपाल चंद को संधि के लिए संदेश भिजवा दिया। गुरूदेव को जब भीमचंद की इस कायरता का पता चला तो उनको दुःख हुआ और वे चुपचाप वापिस आनन्दपुर आ गये।

गुलेर युद्ध में गुरूदेव का योगदान
अलिफखां नादौन की लड़ाई में बुरी तरह पराजित हुआ था। भीमचंद विजयी होकर भी कायरतावश कृपालचंद से संधि करने भागा था। संधि की चर्चा में उसने अपना सारा दोष गुरूदेव जी के माथे मढ़ कर कृपाल को प्रसन्न कर लिया था और दोनों अन्तरंग मित्र हो गये थे। उनकी मित्रता के पीछे उनकी कपटपूर्ण प्रवृति थी, अतः परिणाम भी विषाक्त ही होना था। अलिफखां पराजित होकर जब लाहौर पहुंचा तो सूबेदार ने उसे बुरा-भला कहा। इस पराजय से एक प्रकार से बादशाह की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचा था, इसलिए लाहौर का सूबेदार अधिक शक्ति से धावा करना चाहता था। नादौन का युद्ध सन् 1689 में हुआ था, अगले वर्ष लाहौर के सूबेदार का क्रोध गुलेर राज्य के राजा गोपाल पर उतरा। आक्रमण की योजना जब बन रही थी, तभी सूबेदार के एक पुराने सैनिक हुसैनी ने अपने आप को इस कार्य के लिए प्रस्तुत किया औश्र सूबेदार को पहाड़ी राजाओं को दण्डित करने का पूरा विश्वास दिलाया। हुसैनी एक बड़ी सेना लेकर पर्वत प्रदेश की ओर बढ़ा। उसका निशाना राजा भीमचंद और गुरू गोविंद सिंह थे, क्योंकि इन दोनों के कारण अलिफखां नादौन का युद्ध हारा। हुसैनी अपनी फौज लेकर कांगड़ा के रास्ते से ही आनन्दपुर की ओर बढ़ा। कांगड़ा में जब हुसैनी का पड़ाव पड़ा तो कपटी कृपालचंद ने पुनः पुराना हथकंडा अपनाया। उसने हुसैनी को भी कुछ धन देकर उससे मित्रता कर ली। कहलूर का राजा भीमचंद कृपाल से पहले ही संधि कर चुका था। वह भी अब वहीं पहुुंच गया और दोनों ने मिलकर हुसैनी को पक्का विश्वास दिला दिया कि उक्त क्षेत्र में झगड़े की जड़ केवल आनन्दपुर वाले गुुरूदेव जी हैं। उनका दमन समस्त पहाड़ी द्वारा बादशाह की अधीनता के समान है। हुसैनी को यह बात मान लेने में कोई बाधा नहीं थी, क्योंकि नादौन में गुरूदेव जी के ही कारण अधिक पराजय का मुंह देखना पड़ा था। अतः निर्णय लिया गया कि हुसैनी कांगड़ा से सीधे आनन्दपुर पर आक्रमण करेगा और कृपाल तथा भीमचंद इस कार्य में उसके सहयोगी होंगे। हुसैनी की सेनायें आनन्दपुर पहुुंचने से पूर्व गुलेर राज्य के निकट पहुंची, तो भीमचंद को गुलेर के राजा गोपाल से अपना कोई पुराना वैर याद आ गया। उसने तिकड़म से हुसैनी को गुलेर राज्य को लूट लेने के लिए तैयार कर लिया। गोपाल ने भावी दुर्भाग्य से बचने के लिए हुसैनी के शिविर में उपस्थित होकर 5 हजार रूपये देकर पीछा छुड़वाना चाहा। हुसैनी तो शायद 5 हजार में मान भी जाता, किन्तु कृपाल और भीमचंद कपटी थे। उन्होंने हुसैनी को 10 हजार की मांग करने को प्रेरित किया। गोपाल के पास इतनी राशि नहीं थी, किन्तु शिविर से बच निकलने की खातिर उसने अधिक राशि का प्रबन्ध करने के बहाने वहां से छुटकारा पाया और भागकर अपने दुर्ग में सुरक्षित हो गया। साथ ही गुरूदेव जी पास सहायता के लिए प्रार्थना भिजवा दी। गुरूदेव ने अपने एक सेनापति भाई संगतिया को बहुत बड़ी संख्या में शूरवीर सैनिक देकर गोपाल की मद्द को भेजा। अचानक सिक्ख सेना पहुंचने से कृपालचंद और भीमचंद आतंकित हो गये। उन्होंने हुसैनी को 5 हजार लेकर मारकाट से बचने की सलाह दी। गोपाल ने यह शर्त स्वीकार कर ली। गोपाल के साथ भाई संगतिया तथा उनके 7 शूरवीर हुसैनी के शिविर में धन देने के लिए गए। भाई संगतिया कृपाल और भीम के कपट से परिचित थे। अतः किसी भी स्थिति के लिए तत्पर रहना जरूरी समझते थे। कपटी कृपाल और भीम की योजना गोपाल और संगतिया को गिरफतार करने की थी। 5 हजार की राशि देकर अभयदान देने की बात मात्र बहाना था। गुलेर नरेश और भाई संगतिया जब हुसैनी शिविर में पहुंचे तो बदले हुए तेवर देखकर सारी शरातर भांप गये। उन्होंने जल्दी से सारी राशि संभाली और शिविर से बाहर चले गये। हुसैनी की सेनाओं ने इनको घेरने का प्रयास किया, सिक्ख सैनिकों तथा गोपाल की सेनाओं ने उन पर धावा बोल दिया। घमासान युद्ध छिड़ गया। भाई संगतिया में गुरूदेव का उत्साह और अमित प्रेरणा कूट-कूट कर भरी थी, अतः वह भूखे शेर की तरह शत्रु सेना पर टूट पड़ा। दो घंटे के ही निर्णायक युद्ध में शत्रु की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। गुलेर पक्ष से भाई संगतिया और अनेक सूरमा काम आये। राज्य की सेना के भी सैंकड़ों सैनिक मारे गये। शत्रु पक्ष को भारी जनहानि उठानी पड़ी। युद्ध में मुख्य नेताओं की मृत्यु देखकर अन्य लोग धीरे-धीरे खिसकने लगे। गुलेरियां गोपाल को अपूर्व विजय प्राप्त हुई। गोपाल ने गुरूदेव का आभार जताया क्योंकि गुलेर के युद्ध में हुसैनी और कृपाल की मृत्यु तथा पहाड़ी राजाओं के यु़द्धभूमि से पराजित होकर भाग जाने से एक ओर तो गुलेर राज्य का महत्व बढ़ गया। इसके बाद गुरूदेव मुगलों की आंख में कांटे की तरह चुभने लगे। हुसैनी की मृत्यु की सूचना पाकर लाहौर के सूबेदार ने अपने पुत्र को 5 हजार सैनिक देकर गुरूदेव जी विरूद्ध भेजा। लेकिन गुरूदेव के शूरवीरों के दांत खट्टे कर दिये शत्रुपक्षी सैनिकों ने जिधर देखा उधर अपने प्राण बचाने का प्रयास किया। सेनापति पराजित होकर जब लाहौर पहुंचा तो सूबेदार ने अपनी बेइज्जती महसूस की। गुरूदेव जी की शक्ति के सम्मुख अपनी पराजय स्वीकार कर ली। उसने बादशाह औरंगजेब को संदेश भिजवा दिया कि पहाड़ी राजा गुरूदेव की प्रेरणा और शह पर कर नहीं देते। बल प्रयोग करके भी हम उनसे कर प्राप्त नहीं कर पाये। औरंगजेब को संदेश मिला तो वह बड़ा क्रोधित हो गया और गुरूदेव को दण्डित करने की योजना बनाने लगा।

पर्वतीय नरेशों पर आक्रमण
लाहौर के सूबेदार की रपट पाकर औरंगजेब ने अपने बेटे बहादुरशाह को सेना देकर गुरूदेव जी तथा पर्वतीय नरेशों के विरूद्ध लड़ने के लिए भेजा। सूचना प्राप्त होते ही नन्द लाल गोया जोकि कभी बहादुरशाह के पास मीर मुन्शी की पदवी पर कार्य कर चुके थे, आनन्दपुर से चलकर उसे लाहौर में मिले और उन्होंने बहादुरशाह को गुरू गोविन्द सिंघ जी व्यक्तित्व एवं कार्यों, प्रवृतियांे से परिचित कराया तथा समझाया कि गुरूदेव जी के विरूद्ध संग्राम करना मानवता का गला घोटने के समान है क्योंकि वह हिन्दु-मुस्लिम सबके निरपक्ष सहयोगी हैं। उनको किसी जाति धर्म या सम्प्रदाय से घृणा नहीं। वे केवल अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध है। अतः वर्तमान स्थिति में लाहौर के सूबेदार के व्यवहार में कहीं न कहीं खोट अवश्य होगा। पर्वतीय नरेशों तथा सूबेदार के साथ गुरूदेव जी की टकराहट इसी कारण हुई होगी। बहादुरशाह सूझवान तथा उदार था, उसमें अपने पिता औरंगजेब की भान्ति कट्टरता नहीं थी। इस कारण उसने वचन दिया कि उसका अभियान केवल पर्वतीय नरेशों तक ही सीमित रहेगा। इसलिए गुरूदेव जी अभय होकर निश्ंिचत रह सकते हैं। जब बहादुरशाह कर वसूल करके पर्वतीय प्रदेशों से दिल्ली लौटा तो औरंगजेब को गुरूदेव जी पर आक्रमण न करने के कारण का पता चला तो उसने तुरन्त गुरू प्रेमी नन्द लाल की हत्या कर देने का आदेश दिया और अपने गुण्डे आनन्दपुर भेजे। किसी प्रकार यह रहस्य बहादुरशाह को पता चल गया। वह नन्दलाल गोया से बहुत स्नेह करता था। अतः उसने इस घटना की सूचना उनको तुरन्त भेजी और सतर्क रहने को कहा।

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