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प्राकृतिक खेती- टिकाऊ भविष्य की ओर एक सार्थक पहल, ‘सीतारा’ प्रमाणन प्रणाली होगी लागू

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एप्पल न्यूज, नौणी सोलन

प्राकृतिक खेती न केवल पर्यावरण-संवेदनशील कृषि प्रणाली है, बल्कि यह पारिस्थितिकी तंत्र को संरक्षित करने और किसानों को आत्मनिर्भर बनाने का एक प्रभावी तरीका भी है।

हिमाचल प्रदेश के डॉ. यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी में आयोजित क्षेत्रीय प्राकृतिक खेती परामर्श और कार्यशाला इस दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास था।

कार्यशाला का उद्देश्य और महत्व

यह कार्यशाला राष्ट्रीय प्राकृतिक खेती मिशन और भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के राष्ट्रीय जैविक और प्राकृतिक खेती केंद्र, गाजियाबाद के सहयोग से आयोजित की गई थी।

इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य था:

  • जागरूकता बढ़ाना: किसानों, नीति निर्माताओं और वैज्ञानिकों के बीच प्राकृतिक खेती के लाभों को साझा करना।
  • क्षमता निर्माण: किसानों को प्राकृतिक खेती अपनाने के लिए आवश्यक ज्ञान और तकनीकों से लैस करना।
  • प्रमाणन प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाना: ताकि किसानों को अपनी उपज को बाजार में बेहतर मूल्य मिल सके।
  • नीति संवाद: प्राकृतिक खेती को मुख्यधारा में लाने के लिए सरकार और किसानों के बीच समन्वय स्थापित करना।

पद्मश्री नेक राम शर्मा का योगदान

हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले के प्रगतिशील किसान, पद्मश्री नेक राम शर्मा, इस कार्यशाला के प्रमुख वक्ता थे। उन्होंने प्राकृतिक खेती को टिकाऊ कृषि के रूप में स्थापित करने पर बल दिया।

उनका “नौ अनाज सिद्धांत” (Nine-Grain Principle) किसानों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना, जिसमें बहुफसली प्रणाली अपनाने पर जोर दिया गया। यह पद्धति न केवल मिट्टी की उर्वरता बनाए रखती है, बल्कि किसानों को वित्तीय स्थिरता भी प्रदान करती है।

उन्होंने स्थानीय जैव विविधता के संरक्षण और वन पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा के महत्व को रेखांकित किया। उनका मानना है कि रसायन-आधारित कृषि ने मिट्टी की गुणवत्ता को नुकसान पहुंचाया है, और अब प्राकृतिक खेती को अपनाना सिर्फ एक विकल्प नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए अनिवार्य हो गया है।

प्राकृतिक खेती के लिए ‘सीतारा’ प्रमाणन प्रणाली

नौणी विवि के कुलपति प्रो. राजेश्वर सिंह चंदेल ने किसानों को उनकी उपज के बेहतर मूल्य दिलाने के लिए हिमाचल प्रदेश की ‘सीतारा’ प्रमाणन प्रणाली पर चर्चा की। यह प्रणाली:

  • लागत प्रभावी है और किसानों को जटिल प्रक्रियाओं से बचाते हुए उन्हें प्रमाणित उत्पाद बेचने में मदद करती है।
  • यह प्राकृतिक खेती के उत्पादों को एक विश्वसनीय पहचान देने का काम करती है, जिससे उपभोक्ताओं का भरोसा बढ़ता है।

उन्होंने हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा प्राकृतिक खेती के तहत उगाए गए मक्का और गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) तय करने की सराहना की। इससे किसानों को बाजार की अस्थिरता से सुरक्षा मिलेगी।

प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए उठाए गए कदम

  • किसानों की बाजार पर निर्भरता कम करने पर जोर दिया गया।
  • ब्लॉक-स्तरीय तकनीकी प्रबंधकों को प्रशिक्षित कर विभिन्न इलाकों में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के प्रयास किए गए।
  • कृषि उद्यमियों और किसान उत्पादक कंपनियों (FPCs) के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ साझेदारी की जा रही है।

तकनीकी सत्र और मुख्य चर्चाएँ

कार्यशाला के दौरान दो तकनीकी सत्र आयोजित किए गए, जिनमें प्राकृतिक खेती की उन्नत तकनीकों पर विशेषज्ञों ने जानकारी साझा की। प्रमुख विषयों में शामिल थे:

  1. मृदा स्वास्थ्य सुधार: जैविक खाद और प्राकृतिक मल्चिंग तकनीकों का उपयोग।
  2. रसायन-मुक्त कीट और रोग प्रबंधन: देशी जीवाणु संवर्धन और जैविक कीटनाशकों का उपयोग।
  3. संसाधन अनुकूलन: जल प्रबंधन और सूक्ष्म पोषक तत्वों के प्रभावी उपयोग की विधियाँ।
  4. प्राकृतिक खेती के लिए प्रमाणन प्रणाली: बाजार में जैविक उत्पादों की पहचान और प्रमाणीकरण की प्रक्रिया।

किसानों और कृषि संगठनों को सम्मानित किया गया

कार्यक्रम के दौरान प्रगतिशील किसानों को प्राकृतिक खेती में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए सम्मानित किया गया। साथ ही, विभिन्न किसान उत्पादक कंपनियों (FPCs) ने अपनी प्रदर्शनियों के माध्यम से प्राकृतिक खेती की सफलता की झलक पेश की।

समाप्ति और भविष्य की दिशा

कार्यशाला के निष्कर्षों में यह बात स्पष्ट हुई कि प्राकृतिक खेती को एक संरचित राष्ट्रीय ढांचे की आवश्यकता है। इससे:

  • किसानों को सरकार की योजनाओं का लाभ मिल सकेगा।
  • प्राकृतिक खेती की चुनौतियों का समाधान निकालकर इसे व्यावसायिक रूप से सफल बनाया जा सकेगा।
  • पारंपरिक रासायनिक खेती की जगह प्राकृतिक खेती को मुख्यधारा में लाने के लिए नीति-निर्माताओं और किसानों के बीच बेहतर समन्वय स्थापित किया जा सकेगा।

यह कार्यशाला प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास थी। इससे न केवल किसानों को नई तकनीकों और प्रमाणन प्रणालियों की जानकारी मिली, बल्कि सरकार और कृषि वैज्ञानिकों के साथ उनका संवाद भी स्थापित हुआ।

यह पहल भविष्य में भारत में टिकाऊ कृषि और पर्यावरणीय संतुलन को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है

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