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तीन पीढ़ियों के जीवनानुभव के त्रिकोण पर उपजी कविताओं का कलरव

एप्पल न्यूज़

एक पीढ़ी को दूसरी पीढ़ी से जोड़ने का जरिया होते साहित्य की अभिवृद्धि के लिए निरंतर प्रयासरत हैं -एक पिता, दो पुत्र व एक सुपौत्री का लेखन-प्रवाह। मूलतःआगरा शहर की पृष्ठभूमि से जुड़े कवि अनिल कुमार शर्मा उनके दो सपुत्र दुष्यंत शर्मा व सिडनी- आस्ट्रेलिया निवासी जयंत शर्मा एक सुपौत्री गार्गी शर्मा (11 वर्षीय) साहित्य को अपने लेखन के माध्यम से लगातार नए आयाम देने में तत्पर हैं।इन सबके क्रमश 1. कहीं कुछ कम है -कविता संग्रह2. खामोशी का शोर 3.माय फुटलूज डायरी(इंगलिश )4.समर म्यूजिंग(इंगलिश )चारों काव्य संग्रह देश-विदेश के जाने-माने समीक्षकों की समीक्षा के साथ इसी करोना कॉल के विश्व आपदा-वर्ष2020 के दौरान मुद्रित व प्रकाशित हुए हैं जो कि अपने आप में एक कीर्तिमान प्रतीत हो रहा है

जहां सूचना क्रांति, उदारीकरण और भूमंडलीय बाजारवाद के वैश्विक परिदृश्य ने दुनिया भर में सांस्कृतिक अस्मिता को प्रभावित किया है वहीं नई चुनौतियां भी दी हैं । पूंजी आधारित वर्तमान व्यवस्था में सांस्कृतिक मूल्य तेजी से दरके हैं ,पीढ़ियों के मध्य आए उतार-चढ़ाव को भी उसी गति से प्रभावित किया है। उक्त चारों लेखकों के लेखन में यह बदलाव झलकता है इन्होंने सामाजिक,राजनीतिक सांस्कृतिक व आर्थिक बदलावों को भी अपने लेखन में बाकायदा महसूस ही नहीं किया बल्कि उसे जिम्मेदारी के साथ रेखांकित भी किया है जैसे:-

\” हम इस कदर विकसित हो गए कि /हमें आदत हो गई है /संहार की ,घोटालों की ,आतंक की /चटपटी खबरें देखने की /वह भी डिनर टेबल पर बैठकर /
बस बहुत वीभत्स दृश्य हो /तो चैनल बदल देते हैं हम\”
वैसे भी रचनाकार की रचनाधर्मिता चाहे भी तो युगांतर प्रभाव से बच नहीं सकती है । पॉपुलर कल्चर ने भी साहित्य को प्रभावित किया है इसकी छवियाँ,प्रतिछवियाँ उक्त काव्य संग्रहों में अभिव्यक्त हुई हैं:-

“द्वापर में भी यह सुख नहीं था / वहां भी सो गाली दे चुकने की सीमा के बाद /
शिशुपाल को जान से हाथ धोना पड़ा था /आज सौ गाली से तो शुरुआत होती है /और सीमा तो कुछ है ही नहीं /चाहें तो आखिरी सांस तक /आप जितनी चाहे बकवास करें गाली बकें….\”
पीढ़ी दर पीढ़ी की अभिव्यक्ति में अंतर चिर प्राकृतिक होता है और परिवर्तन प्रकृति का नियम भी है । 16 वीं शताब्दी में गुरु जांभोजी ने भी अपनी वाणी में इसका उल्लेख किया है:-
“जो जित हुंता सो तित नाही ,भल खोटा संसारू \”
इन पुस्तकों में कविताएं सर्वथा छंद मुक्त हैं ।प्राचीन काल में कविता में छन्द- अलंकारों को जरूरी माना जाता रहा लेकिन आधुनिक काल में कविताएं स्वच्छंद होती चली गई ,इनमें भाव तत्व की प्रधानता मुखर हो गई, बस- भावों की लय ही पाठक /श्रोता को बांधे रखती है। आधुनिक काल में पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी जी \”परंपरा और आधुनिकता\” निबंध में बदलते युग का संकेत करते हैं:-

\”नए परिवेश में कुछ पुरानी बातें छोड़ दी जाती हैं और नई बातें जोड़ दी जाती हैं एक निरंतर चलती रहने वाली प्रक्रिया है
अनुभूति जब अभिव्यक्ति की मांग करती है तब यह परिवर्तन रचनाकारों की रचनाधर्मिता में प्रतिबिम्बित होता हुआ दिखाई दे रहा है:-

\”मेरे अंदर जो है / बाहर आने के लिए शायद तरसता है / लेकिन इस दुनियाँ में आकर / अपनी पहचान खोने से भी डरता है/ दुनिया में अक्सर दूसरों के दुख पर /उनकी कमियों पर /उनके पतन पर/और उनके मातम पर / हँसते हैं मंद मंद मुस्कुराते हैं लोग /मैं इस दुनिया में रहता हूँ/पर मैं ऐसा नहीं हूँ

प्रकाशन कार्य बहुत सुंदर है ।भावों को सुगठित सहज व सरल शिल्प में बांध कर ही प्रस्तुत किया गया है अर्थात शिल्प सौंदर्य भी काव्य भंगिमा को अनायास ही ओर आकर्षक बना देता है।

चन्द्रकान्त पाराशर, रामपुर बुशहर

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